Kavita Jha

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आत्महत्या एक डरावनी प्रेम कहानी # लेखनी धारावाहिक प्रतियोगिता -09-Sep-2022

भाग -३०


मुझे भूल जाएगा ऐसा तो मैं होने नहीं दूंगी।"
 मेरी मौत की खबर पाकर भी यह मेरे अंतिम संस्कार तक में शामिल नहीं हुआ।

 मैं जैसी थी वैसी ही इसको अच्छी लगती थी और अब यह गंवारन इसे पसंद आने लगी है। दिल्ली की चकाचौंध में गटर भी हैं तो इसे गटर किनारे रहने वाले लोग ही पसंद आने लगे।

छि: सिद्ध हाउ चीप इज़ युअर च्वाइस...

दर्द से दीपा की आत्मा तो कराह ही रही थी पर साधना को इस तरह सिद्धार्थ के बिस्तर पर उसके पास लेटे देख कर उसका तन बदन अगर होता तो जल कर राख हो चुका होता,जो कि पहले ही राख हो चुका था। उसे अपने गुस्से में ना तो पहले कंट्रोल था और ना अब मरने के बाद उसकी आत्मा को था। 

जिस पंखे पर वो सावन की नजर से बचकर छुपने आई थी उसी पंखे की छड़ के पेंच निकालने लगी जिससे वो पंखा साधना पर गिर जाए। अब वो सिद्धार्थ को भी अपने साथ ले जाने के लिए उसे मार देना चाहती थी।

चर्र... चर्र... की आवाज़ से सिद्धार्थ का ध्यान साधना से हटकर गिरते हुए पंखे पर गया।

उसने जैसे ही देखा पंखा बिस्तर पर गिरने वाला है बिना एक पल गंवाए,साधना को गोद में उठाकर जमीन पर आकर बैठ गया। 

धड़ाम..से पंखा बिस्तर पर आ गिरा और गिर पड़ी उसके साथ दीपा,, गुस्से में आग बबूला हो तकिया फाड़ने लगी पूरे कमरे में सफेद  रुई इस तरह उड़ रही थी जैसे बर्फ बिखरी हो । दोनों तकिया गद्दा सब फाड़ कर सारी रुई उड़ा डाली और चीखती रही दीपा की आत्मा।

"इस बार फिर इसको तूने बचा लिया सिद्धार्थ। अब तक बचाएगा तू इसे। "

पंखे के गिरने की आवाज से साधना की आंँख खुल गई । उसने खुद को सिद्धार्थ की गोद में पाया और पूरे कमरे में सफेद बादल समान बिखरी रुई में ऐसा लग रहा था जैसे वो आसमान की परी अपने शहजादे सावन के साथ उड़ रही है आकाश में। 

उसने एक बार सिद्धार्थ को देखा अपने चारों तरफ बिखरी रुई जिसे वो बादल समझ रही थी देखी और फिर से अपनी आंखें बंद कर ली।वो इस खूबसूरत पल को खोना नहीं चाहती थी।

सिद्धार्थ ने जब देखा साधना को होश आया फिर बेहोश हो गई तो वो वैसे ही बैठे रहा।रूई के पहाड़ के बीच।

पंखे के बिस्तर पर गिरने आवाज इतनी तेज आई थी कि सिद्धार्थ के पक्के मकान में अपने बिस्तर पर सोती हुई उसकी माँ हड़बड़ा कर उठ बैठी और सबको आवाज लगाने लगी।

"क्या गिराया?? तुम लोग दो पल आराम नहीं करने दोगे हमको। सारा दिन तोड़ फोड़ मचाकर रखते हो।"
 
"मांजी यह आवाज तो लगता है उधर रेंटर वाले पुराने मकान से आई है।" शीला जी की दूसरी बहु बोली।

"हे भगवान सिद्धार्थ.. " कहते हुए वो बिस्तर से उठ कर दौड़ती हुई अपने बेटे के कमरे में पहुंच गई।
वहां का नजारा देख हतप्रभ हो गई।

उन्हें रुई के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था।
हे माँ भगवती यह क्या हो गया मेरा बेटा... सिद्धू सिद्धू ... कहाँ है बेटा।

,,तभी सिद्धार्थ ने रूई के पहाड़ के बीच से अपना हाथ बाहर किया और खांँसते हुए बोला," मांँ मांँ .. हम यहाँ है।"

समाप्त

कविता झा'काव्या कवि'
#लेखनी धारावाहिक प्रतियोगिता 

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4 Comments

Seema Priyadarshini sahay

06-Oct-2022 06:34 PM

बहुत बढ़िया लिखीं हैं।👌👌

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Barsha🖤👑

03-Oct-2022 06:28 PM

Beautiful

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नंदिता राय

01-Oct-2022 09:20 PM

बेहतरीन

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